सार्वजनिक गणपति उत्सव को फुले के विचारों के विरोध में ही शुरू किया गया-एक शोध
तिलक का दृष्टिकोण पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी था, जिसका मानना था कि हिंदू महिलाओं को पढ़ना-लिखना सिखाने से उनके पारंपरिक गुण नष्ट हो जाएँगे और वे अनैतिक और अधीनस्थ बन जाएँगी।
मुझे भी जानकार आश्चर्य हुआ लेकिन अपने चैनल पर’तिलक ने फुले को रोकने के लिए शुरू किया था गणेश उत्सव.’ के टाइटल से द न्यूज़ बीक ने तथ्यों के साथ अपनी बात रखी। उससे यह स्पष्ट भी होता है की दोनों के विचार बिल्कुल विरोधी थे। महात्मा ज्योतिबा फुले ने 1973 में सनातनी ब्राह्मणवाद और जातिवाद के ख़िलाफ़ अपनी किताब गुलामगिरी लिखी जिसकी एक प्रति अमरीका के राष्ट्रपति और एक प्रति ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया को भेजकर तहलका मचा दिया। तब निश्चित ही इसके प्रभाव को रोकने का कुछ प्रयत्न किया गया होगा।
मेरे जीवन में सनातनी ब्राह्मण समाज के लोगों के साथ हुए अनुभव के आधार पर मैं इसके समर्थन में कुछ पॉइंट रखता हूँ जिससे यह सत्य है इसको बल मिल सकेगा।
ज्योतिबा फूले हिंदू धर्म के एक महान सुधारक और तिलक एक कट्टर पित्रात्मक सत्ता हितैषी हिन्दुवादी
Refrence Foundations of Tilak’s Nationalism: Discrimination, Education and Hindutva by Parimala V Rao किताब ‘ तिलक के राष्ट्रवाद की नींव- भेदभाव, शिक्षा और हिंदुत्व की लेखक परीकला वी राव पर आमेजन की टिप्पणी इस प्रकार है “यह पुस्तक जातिगत, धार्मिक पूर्वाग्रहों और लैंगिक असमानताओं से मुक्त एकल भारतीय राष्ट्रीयता के विरुद्ध तिलक के रुख का आलोचनात्मक विश्लेषण करती है, कि कैसे उन्होंने समाज पर जमींदारों के आधिपत्यपूर्ण नियंत्रण की वकालत की, जो सुधारकों के विपरीत था, ( यहाँ उस समय के उनके धुर विरोधी ज्योतिबा फूले का नाम लिखना आवश्यक समझता हूँ ताकि मेरी बात को स्पष्ट किया जा सके जिसके संदर्भ में इस किताब को सोर्स के रूप में उपयोग कर रहा हूँ) और महिलाओं और गैर-ब्राह्मणों को शिक्षा प्राप्त करने से रोकने के राष्ट्रवादी एजेंडे से संबंधित बहसों की पड़ताल करती है। तिलक का दृष्टिकोण पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी था, जिसका मानना था कि हिंदू महिलाओं को पढ़ना-लिखना सिखाने से उनके पारंपरिक गुण नष्ट हो जाएँगे और वे अनैतिक और अधीनस्थ बन जाएँगी। तिलक के अनुसार, जाति व्यवस्था की आलोचना और महिलाओं और गैर-ब्राह्मणों को शिक्षा की अनुमति देना ‘अराष्ट्रीय प्रवृत्ति’ (Antinational) और ‘हिंदू राष्ट्र के विरुद्ध’ था। लेखक ‘हिंदुत्व’ की अवधारणा के मूल पर भी चर्चा करते हैं और इसे हिंदुओं और मुसलमानों, या हिंदुओं और अंग्रेजों के बीच हितों के टकराव में नहीं, बल्कि धार्मिक तटस्थता के परित्याग और जातिगत प्रतिबंधों के लागू होने में ढूंढते हैं ।”
हिंदुत्व की परिमाला वि राव की डेफिनिशन से यह स्पष्ट होता है की सार्वजनिक गणपति पूजा शुरू करते समय अंग्रेज़ों से आजादी का ख्याल तो बिल्कुल नहीं था क्योंकि 1857 की क्रांति को बुरी तरह कुचले जाने को पचास साल भी पूरे नहीं हुए। और जिस क़ौम ने कोई युद्ध नहीं किया हो और सारे राजपाट छल, कपट, धोखा और फुट डालकर हथियाये हों उसके लिए इतनी जल्दी फिर से आजादी का ख्याल आना बेमानी होगा।
यानी इसको बाद में जोड़ा गया ताकि ज्योतिबा फूले के विरोध में सार्वजनिक गणपति उत्सव की शुरुआत को छिपाया जा सके, क्योंकि महिला और नीची जाति को शिक्षा तथा मूर्ति पूजा और अंधविश्वास पर तिलक के विचार, ज्योतिबा फूले के बिल्कुल विरोधी थे।
फूले को इतना भुला दिया जाना की मुझे भी 2019 में उनके बारे में पता चला और गणपति पूजन का आजतक मनाया जाना ये दोनों तिलक की अपने उद्देश्यों में सफलता की सूचना हैं। बस तिलक ने इसकी क्रेडिट ना ली होती तो आजतक पता नहीं चलता की गणपति उत्सव क्यों मनाया जाता है। कितना भी चालाक चोर हो, एक गलती तो वह करता है जिससे वह पकड़ा जाता है।
मूर्ति पूजा विरोधी पेरियार की मूर्ति पूजा से भूलावा
उत्तर भारत में पूजे जाने वाले एकमात्र देवता जिनको दाढ़ी मूछें हैं वे भगवान विश्वकर्मा हैं। जिस प्रकार दक्षिण के समाज सुधारवादी नेता पेरियार, जो अपनी दाढ़ी मूँछों से पहचाने जाते थे, की प्रसिद्धि उत्तर में रोकने के लिए उनके जन्मदिन पर विश्वकर्मा जयंती मनाई जाना शुरु की गई उससे लगता तो यह सही है की गणपति उत्सव भी महात्मा ज्योतिबा फूले, सावित्रीबाई फूले और फातिमा के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए शुरू किए गए हों। नीचे के फोटो से यह स्पष्ट होता है। और जिस प्रकार पूरे देश में की जा रही खुदाई से अब पता चल रहा है कि किसी भी बुद्ध कालीन पुरातन कलाकृतियों और मंदिरों को जमीन में गाड़कर उसपर पेड़ लगा दिए जाते थे उसी प्रकार किसी दलित पिछड़े समाजसुधारक के इतिहास और कार्यों को उसी मानसिकता वाले लॉगिन द्वारा हिंदू देवताओं की आड़ में दफ़न किया जाना उचित ही प्रतीत होता है।
कोरोनाकाल में घर से बाहर या गैलरी में थाली पीटना
यदि कोरोना वायरस जिसने पूरे विश्व के लोगों को प्रभावित किया और जिसे वैश्विक आपदा घोषित किया गया और कई प्रतिबंध सहित वैक्सीन के कारण हम उसके प्रभाव से दो तीन सैलून में मुक्त हो गए। लेकिन भारत में मोदी ने जो घर के बाहर निकलकर थाली बजाने के माध्यम से इस बीमारी का निवारण करने के ढोंग किया था वह असल में देश में रह रहे लेफ्ट विंगम कांग्रेस समर्थक और समाजवादी, धर्म निरपेक्ष तथा जाति प्रथा विरोधी वैज्ञानिक सोंच रखने वालों को समाज में अलग थलग चिन्हित कर लेने का उपाय था। जो भी घर के बाहर या बालकनी में नहीं आए और थाली नहीं बजाएगा उसको लॉक डाउन में राशन, दवाई इत्यादि के माध्यम से परेशान किया जाएगा।
सबको घर से बाहर निकालकर, जो नहीं निकले उसको चिन्हित करना या जो सार्वजनिक गणेशोत्सव में शामिल नहीं हो उसको चिन्हित करना ताकि सोशल बायकॉट किया जा सके और ऊँची जात की विचारधारा के अनुकूल बनाया जा सके यह पुरानी तरकीब है नीची जाति और सुधारवादी लोगों के फॉलोअर्स को आइसोलेट करने की
मैंने थाली नहीं बजाई और मैंने अपने साथ सौतेला व्यवहार होते भी देखा। जो मुझसे ज़्यादा ऐक्टिव लोग थे वे यदि बीमार पड़े तो उन्होंने अस्पताल जाते समय ही बोल दिया की अब ज़िंदा वापस नहीं आऊँगा। मेरे शहर के राहत इंदौरी उनमें से एक शख़्सियत है जिनके साथ यही हुआ।
उपसंहार
इन सभी अनुभवों के आधार पर यह क़यास लगाया जा सकता है, और जो काफ़ी कुछ सही भी प्रतीत होता है, कि ऑर्थोडॉक्स हिंदू या सनातनी हिंदू जिनका विरोध महात्मा फूले कर रहे थे, वे क़रीब क़रीब एक जैसी तरकीब का ही प्रयोग हज़ारों वर्षों तक करते रहे। क्योंकि उनको बचपन में ही ये सब सीखा दी जातीं थी। जिस प्रकार कोरोना काल में सुधारवादी लोगों को घर से बाहर निकलकर थाली पीटने का कहकर आइसोलेट किया गया, उससे यह अनुमान ग़लत नहीं होगा यदि कहा जाए की गणपति उत्सव को सार्वजनिक और सामूहिक रूप से मानने के पीछे भी यही मानसिकता रही होगी। ताकि जो भी परिवार ज्योतिबा फूले के विचारों से सहमत होकर सार्वजनिक पूजा में शामिल नहीं होगा उसको समाज से बॉयकॉट झेलना पड़ेगा। ऐसे में दलित परिवार को वही निर्णय लेना होगा जो सारे लोग ले रहे हैं ताकि सबकी जान बचाई जा सके।
ऐसे और इस वीडियो को उन सभी यू ट्यूब चैनलों पर हर साल इसी समय दिखाया जाना चाहिए जिनके मालिक अंबेडकरवादी विचारधारा के समर्थक हैं।
कुछ और सुझाव:-
गणपति के दस दिन अब हमको उन लोगों को याद करना चाहिए जैसे महात्मा फूले, फातिमा और सावित्री बाई ने पूना में दलितों और महिलाओं के लिए पहला स्कूल खोला वैसे हर शहर में कोई ना कोई उदाहरण अपने बुजुर्गों से पूछेंगे तो मिलेगा ऐसे लोग जिन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो भी काम किए उसका रिकॉर्ड बनाना यानी उसपर ब्लॉग लिखना, कोई किताब छापना इत्यादि तथा उसका प्रसारण. संबंधित किताबों का पठन, पाठन और प्रदर्शनी या पिक्चर दिखाना और प्रतियोगिता इत्यादि द्वारा प्रचार के उपयोग में लेना चाहिए ताकि दलित लोग बिजी हो जायें और बच्चे भी इतिहास से परिचित हों।
दलितों, पिछड़ों और आदिवासियीं के अंग्रेजों के प्रति आंदोलनों के बारे में भी बहुत कम छूट पुट जानकारी ही इंटरनेट या किताबों में उपलब्ध है। इनके बारे में इनके जीवन जीने का तरीका, ख़ान पान और समाज के नियम इत्यादि पर भी बिल्कुल ना के बराबर किताबें या इंटरनेट पर जानकारी मिलती है। इसलिए इस निचले तबके के पढ़े लिखे लॉगिन का यह पहला कर्तव्य है की वह अपने आसपास के लोगों के बारे में ये जानकारियां यूट्यूब पर या ब्लॉग पर या किताब छापकर उपलब्ध करायें। उसके लिए अपने जीवित वृद्ध लॉगिन से उन्होंने जो सोने बुजुर्गों से सुना है उसे भी रिकॉर्ड करें। यह सब साल भरवकिया जा सकता है और इन दस दिनों या श्रवण के महीने में इसका प्रचार प्रसार किया जाना चाहिए।
अमरीका में जिस प्रकार ‘ब्लैक हिस्ट्री मंथ’ सेलिब्रेट किया जाता है उसमें दलितों ने अपने नागरिक अधिकार जैसे वोट देने का अधिकार, शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ का अधिकार और बराबरी का अधिकार के लिए गोरे लोगों के ख़िलाफ़ आंदोलन किए उनको याद किया जाता है। उसी तर्ज पर श्रावण महीने को दलित हिस्ट्री मंथ के रूप में मनाया जाना चाहिए। ये दस दिन विशेष कार्यक्रम ताकि प्रत्येक दलित जिसने छोटा सा भी योगदान दिया हो उसको याद किया जाए और बच्चे उनके बारे में जानें।
Originally published at https://philosia.in on July 29, 2025.